दुनिया का सबसे तन्हा इंसान

एक सफ़रनामा इरफ़ान ख़ान की अदाकारी का

Abhrajyoti Chakraborty has written for The Guardian, The New Yorker and The New York Times Magazine. He was a Provost's fellow at the Iowa Writers'...

अनुवादः रेयाज़ुल हक़

अस्पताल के फ़ोन बूथ से एक आदमी अपने घर फ़ोन करता है. वह इमरजेंसी रूम में भरती है, लेकिन वह अपनी बीवी को डराना नहीं चाहता. इसलिए वह उसे बताता है कि उसे पेट में ज़रा-सी तकलीफ़ है, ज़्यादा कोई परेशानी नहीं है. बीवी अफ़सोस ज़ाहिर करती है कि वह उसके साथ नहीं है. वह मुस्कुराता है और बूथ में लगे शीशे पर अपने हाथ से टेक लगाता है. “सच में, कुछ ख़ास तकलीफ़ नहीं है.” बीवी उससे डॉक्टर के बारे में पूछती है. जवाब देने से पहले वह पल भर ठहरता है. ठीक यहीं, अगर पल भर का यह ठहराव नहीं होता, तो आपको कभी पता नहीं चलता कि हालत कितनी गंभीर है. अब आप जान जाते हैं कि यह आदमी झूठ बोल रहा हैः “फ़िक़्र मत करो, ज़रा-सी बात है.” शीशे पर टिके हुए उसके हाथ काँप रहे हैं, क्योंकि वह सच कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है.

2020 में इरफ़ान ख़ान के गुज़र जाने के बाद से द नेमसेक फ़िल्म के इस दृश्य पर मैं बार-बार लौटा हूँ. किरदार की बारीक कलाकारी में कुछ ऐसा था जो महीनों तक मेरे मन में बार-बार उठता रहा था. यादों में काँपते हुए वो हाथ. यह कलाकारी उस चीज़ का हिस्सा थी जिसे इरफ़ान “लय” कहा करते थे, और जो उनके निभाए हुए हर किरदार में होता था. कई मायनों में इरफ़ान का फ़िल्मी जीवन त्रासद भूमिकाओं से भरा हुआ था – मक़बूल का अभिशप्त प्रेमी, पान सिंह तोमर का एक ज़िद्दी बाग़ी, जुरासिक वर्ल्ड का एक अरबपति जो ख़ुद हेलिकॉप्टर पर सवार होकर डायनासोर के पीछे लगा हुआ है. इसके बावजूद मैं मौत से जुड़े उस एक दृश्य को बार-बार देख रहा था, जिसमें उनका किरदार दर्शक को नहीं जानने देता कि आगे क्या होने वाला था. द नेमसेक का किरदार फ़ोन रखने से पहले अपनी बीवी को भरोसा दिला देता है कि सब कुछ ठीक है. फिर वह अपने हाथ अपनी जेबों में डालता है और हमसे दूर चला जाता है.

यह पंद्रह साल पहले के इरफ़ान थे, जो ठीक एक ऐसे पल में एक तरह से एक अंत को महसूस करा पाने में कामयाब रहे थे, जब उनका फ़िल्मी करिअर ढंग से शुरू हो रहा था. एक बार फिर वे ठीक ऐसा ही करने वाले थे, जब 2018 में पाया गया कि उन्हें कैंसर है. फ़र्क़ यह था कि इस बार एक सचमुच की ज़िंदगी दांव पर थी. दो हफ़्तों के भीतर ही उनका कैलेंडर बदल गया थाः जैसा कि उन्होंने तब लिखा था, उनकी ज़िंदगी अचानक ही “एक रहस्यमय अफ़साना” बन गई थी. वे अपनी बीवी सुतपा सिकदर के साथ इलाज के लिए लंदन चले गए. लेकिन एक साल के भीतर ही वे भारत लौट आए, उन्होंने एक फ़िल्म की शूटिंग शुरू कर दी, वे सेट पर ख़ुश दिखाई देते थे. कुछ समय के लिए उनके व्यवहार में किसी भी अनहोनी का अंदेशा नहीं दिता था, द नेमसेक के दृश्य की तरह. उनके गुज़रने के बाद, सिकदर ने बताया कि उनकी मेडिकल रिपोर्ट्स “फ़िल्मी पटकथाओं की तरह थीं जिन्हें मैं परफ़ेक्ट देखना चाहती थी.” अपने आख़िरी महीनों में, जब वे अपनी बीमारी की हक़ीक़त से समझौता कर रहे थे, इरफ़ान अपने आगामी जीवनीकारों को इस शिकायत से बचा रहे थे कि उनकी रफ़्तार धीमी पड़ गई थी.

अभिनेताओं की ज़िंदगियाँ उनकी फ़िल्मों के काल्पनिक सफ़रनामों की झलक देती दिखाई पड़ती हैं, लेकिन इरफ़ान ने जिन मायावी किरदारों को पर्दे पर साकार किया था, उनकी तुलना में उनका अपना जीवन मुश्किलों से उबर कर निकल आने का एक सफ़रनामा ही दिखाई देता है. नई सदी की दहलीज़ पर बड़े होने वाले हम भारतीयों के लिए, इरफ़ान ने यह साबित किया कि एक लोकप्रिय फ़िल्म में नायक बनना और बारिश में नाचने-गाने के दृश्यों से बचे रहना मुमकिन था. कि एक किरदार को जीवंत बनाने के लिए यही काफ़ी नहीं है कि वह किरदार क्या कहता है, बल्कि यह इससे भी मुमकिन हो सकता है कि उस किरदार ने क्या नहीं कहा. कि पर्दे पर तेज़ी से गुज़रने वाला जो एक मंज़र आपने देखा है उसमें बरसों का सोच और संयम शामिल है. जब इरफ़ान ने द नेमसेक और द माइटी हार्ट जैसी अंतरराष्ट्रीय फ़िल्मों में भूमिकाएँ कबूल कीं, तो उन्होंने अपने में बहुत बदलाव नहीं किए. वे अभी भी एक बाहरी थे, जयपुर के एक मध्यवर्गीय मुसलमान माँ-बाप की औलाद. वे हिंदी फ़िल्मों के गीत-संगीत से भरे, उछलते-कूदते नायकों से एकदम अलग थे, उन मुट्ठीभर घरानों से अलग जो बंबई के स्टूडियो सिस्टम पर एक ख़ानदानी गिरफ़्त बनाए रखते हैं, कॉस्मोपॉलिटन अभिनेताओं की पुरानी पीढ़ी से भी अलग जो सम्राट एडवर्ड के दौर की अंग्रेज़ी बोलते हैं और ब्रिटिश पीरियड फ़िल्मों में सहायक भूमिकाएँ हासिल कर ख़ुश रहते हैं. महज एक दशक में ही, इरफ़ान दुनिया भर में परदे पर एक मौजूदगी बन गए, उन्होंने द वॉरियर, द लंचबॉक्स, स्लमडॉग मिलियनेयर, हैदर, लाइफ़ ऑफ़ पाई, जुरासिक वर्ल्ड जैसी फ़िल्में कीं, यहाँ तक कि उन्होंने द इनफ़र्नो में भी एक अहम भूमिका निभाई जहाँ सीन दर सीन वे सतही दिखने वाले टॉम हैंक्स से कहीं आगे निकल गए थे.

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पर्दे पर मैंने इरफ़ान पर जब पहली बार ग़ौर किया था, तब मुझे लगा था कि वे अल पचीनो की तरह चीख रहे थे. स्कारफेस या डॉग डे आफ़्टरनून के पचीनो नहीं, जो बेतरह ही धमकियों पर धमकियाँ देते हैं. बल्कि द गॉडफादर पार्ट 3 के डॉन: बूढ़े, तन्हा, बहादुरी का कहीं कोई निशान नहीं, जो अपनी बाँहों में अपनी बेटी के मर जाने पर चेहरा आसमान की तरफ़ उठा कर रोते हैं. जिस सीन में मैंने इरफ़ान को देखा था, उसमें कोई मौत नहीं थी. लेकिन लाइफ़ इन अ मेट्रो फ़िल्म का जो पल मुझे याद है वह इसी किस्म की उदासी में जज़्ब है – दिल को खोल कर चिल्लाने की एक ज़रूरत, विडंबना देखिए कि यह एक निजी ज़रूरत थी. इस दृश्य में इरफ़ान का किरदार मोंटी अपने साथ काम करने वाली अपनी दोस्त श्रुति (कोंकणा सेन) को बंबई के अपने दफ़्तर की इमारत की छत पर खींच कर ले आया है. श्रुति अपनी ज़िंदगी में ढेर सारी निराशाओं का सामना कर रही है. उसकी बहन की शादी बिखर रही है, वह ख़ुद जिस आदमी के साथ डेट कर रही थी, उसने अपनी पहचान के बारे में झूठ बोला था. “ग़ुस्सा है तुम्हें? किसपे ग़ुस्सा है?” मोंटी उससे पूछता है. “आदमियों पे ग़ुस्सा है? लोगों पे ग़ुस्सा है? क़िस्मत पे ग़ुस्सा है? भगवान पे ग़ुस्सा है? उसको निकाल दो.” पहले पहल श्रुति हिचकती है - “इतना आसान नहीं है,” वह कहती है – लेकिन फिर दोनों अपने सामने शहर के आसमान को पल भर के लिए देखते हैं और फिर एक साथ चिल्लाना शुरू करते हैं. सन्नाटे में उनकी आवाज़ गूँजती है. इमारत इतनी ऊँची है कि शहर का शोर डूब गया है, ऊपर एक ख़ामोशी-सी है. इस बीच जब श्रुति रोने लगती है, आपको अहसास होता है कि वह अपने दर्द का सामना कर रही है. लेकिन मोंटी की चीख में इस बात की थकान भरी हुई है कि यह तरकीब बार-बार आज़माई गई है और फिर भी उसको आज़माते रहने की मजबूरी है.

उसी पल से आप जान जाते हैं कि मोंटी और श्रुति एक दूसरे को प्यार करने लगेंगे. छत पर का वह दृश्य देखने और देखे जाने के रोमांच से भरा हुआ है. उसमें एक दूसरे के आगे असुरक्षित हो जाने का भाव है, जो आम तौर पर पहले चुंबन के साथ जुड़ा होता है. आगे चल कर फ़िल्म में मोंटी उससे पूछता है कि पहली डेट के बाद वह उससे बचने क्यों लगी थी. वह जवाब देती है कि उसने देख लिया था कि वह एक बार उसकी छातियों को घूर रहा था. “दैट (वो)?” मोंटी ज़ोर से कहता है. “तुमने उसके लिए मुझे रिजेक्ट कर दिया?” फिर वह बनावटी हँसी हँसते हुए चुपके-से उसकी देह को फिर से देखता है. इस दृश्य में इरफ़ान की आँखों ने अदाकारी की है. आप यकीन से नहीं कह सकते कि वे धुँधली क्यों हैं, उनकी सिगरेट से निकलने वाले धुएँ की वजह से, या इसलिए कि वे बेचैन दिखने का नाटक कर रहे हैं.

इरफ़ान से मुझे फ़ौरन प्यार हो गयाः बोलते हुए ठहर जाने का उनका सलीका, उनकी आँखें. किस क़दर वे आपको यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि वे जितना जाहिर कर रहे हैं, उससे अधिक उनके भीतर है. जब मैं किशोर था, मैं बार-बार गॉडफ़ादर फ़िल्में देखा करता था, पचीनो के संवाद दोहराया करता था, अपने दोस्तों पर आजमाने के लिए उनके अंदाज़ को याद करता. लेकिन अब मेरा मॉडल एक उतना ही दिग्गज भारतीय अभिनेता था, जिसे आपका ध्यान खींचने के लिए अच्छे संवादों की ज़रूरत भी नहीं थी. जब मैं कॉलेज के लिए बंबई आ गया, मुझे याद है कि पहली शाम मैं समंदर के किनारे चल रहा था और मैंने खुद को ठीक उस जगह पर पाया जहाँ फ़िल्म में मोंटी श्रुति से पूछता है कि उसने उसको रिजेक्ट क्यों किया था. यह एक ऐसे शहर में एक मानीखेज संकेत था, जो संकेतों में इतनी गहराई से यकीन करता है. आप जहाँ भी जाएँ, लोगों के चेहरों पर आपको एक शांत निश्चितता मिलेगी या फिर बदलाव का डर. दफ़्तर आने-जाने के वक़्तों में भीड़ भरी ट्रेनों के भीतर, जब यह पक्का नहीं होता कि डिब्बे में दाख़िल होने वाली भीड़ क्या मुझे स्टेशन पर उतरने के लिए जगह देगी, मैंने तन्हा लोगों को शादी करने और अमीर बनने के मंसूबों से एक दूसरे को तसल्ली देते हुए सुना है. देर रातों में खुली राहों पर, समंदर के किनारे प्रेमी जोड़े शहर से आती रोशनी की तरफ़ पीठ किए बैठते, मानो एक साथ गुज़ारे जाने वाले ये पल अंधेरे में ही मायने हासिल करते हैं. हर बार जब आप स्टूडियो के इलाक़ों से गुज़रते हैं, तो अभिनेता बनने की ख़्वाहिश लिए हुए लोगों की भीड़ दरवाज़ों के आसपास आपको जकड़ लेती है, कि कहीं आप कास्टिंग एजेंट न हों जो किसी नए चेहरे की तलाश में निकला हो.

मैं भी एक मौक़े की तलाश में ही आया था. लेकिन मैं क्या करना चाहता था? एक हफ़्ते किसी विज्ञापन एजेंसी में नौकरी की ख़्वाहिश में मैंने किसी आइसक्रीम ब्रांड के लिए एक बिलबोर्ड कैंपेन डिज़ाइन किया. अगले हफ़्ते मैं एक डॉक्यूमेंटरी फ़िल्ममेकर था, जो एक मंदिर में छुप कर शूटिंग करते हुए गिरफ़्तार हो गया. मैं हर किस्म के तजुर्बे हासिल करना चाहता थाः शायद एक ऐसी नौकरी, जहाँ आख़िरकार कोई मुझे दफ़्तर की इमारत की छत पर ले जाए और चिल्ला-चिल्ला कर मेरे अहसासों को बाहर निकालने में मेरी मदद करे. इरफ़ान के अंदाज़ों में गहराई थी, उनमें इतना कुछ देखने और जीने का तजुर्बा भरा हुआ था – ठीक एक ऐसी तस्वीर जिसे जीवन का भूखा, कॉलेज का एक छात्र, दिखाने की चाहत रखता है.

एक बार मैंने एक लड़की को समंदर के किनारे सुबह सवेरे मिलने के लिए कहा. इरादा था कि हम एक शांत जगह खोज लेंगे, और “अपने भीतर के प्रेतों को” चीख-चीख कर भगाएँगे – मुझे याद है मैंने यही टेक्स्ट किया था. यह एक उलझन में डालने वाला मैसेज ही रहा होगा, इसके बावजूद वह लड़की कमोबेश वक़्त पर पहुँच गई. हम समंदर किनारे दो कुर्सियों पर बैठे और वहाँ सुबह-सुबह दौड़ने वाले लोगों की तीखी निगाहों का जोखिम उठाते हुए, बहुत अटपटा महसूस करते हुए समंदर के सामने चिल्लाने लगे. हमारे पीछे चमकीली धूप उग चुकी थी और जल्दी ही हमने एक दूसरे को प्रभावित करने की कोशिश छोड़ दी. बहुत समय नहीं गुज़रा कि हम साथ में वक़्त बिताने लगे थे, लेकिन हमने उस दिन के बारे में कभी बात नहीं की.

 

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इरफ़ान ख़ान अपनी पैदाइश के वक़्त साहबज़ादे इरफ़ान अली ख़ान थे. वे एक ऐसे वक़्त में जन्मे थे जब भारतीय मुसलमानों को सबसे पहले भारतीय माना जाता था. उस वक़्त को एक अरसा गुज़र चुका है. उनके पिता किसी वक़्त रईस हुआ करते थे, जिन्होंने अपनी ख़ानदानी ज़मीन और रोब-दाब छोड़ दिया था, लेकिन अभी भी कभी-कभार शिकार पर निकल जाया करते थे. इरफ़ान की अम्मी एक तन्हाईपसंद औरत थीं जो ज़्यादातर घर पर रहती थीं. नन्हे इरफ़ान उनके चार बच्चों में दूसरे थे और घर में पहले लड़के थे. उन्हें अम्मी के दुलार और नज़दीकी से अधिक कोई और चीज़ पसंद नहीं थी. “मैं उनके करीब रहना चाहता था,” इरफ़ान ने एक बार एक इंटरव्यू में कहा था, “लेकिन जाने कैसे हम एक दूसरे से झगड़ते रहने लगे. मैं ख़यालों में सोचता कि वे मेरे सिर पर हाथ फेर रही हैं – मुझे लगता है कि मैं अपनी पूरी ज़िंदगी उस अहसास की तलाश में रहा हूँ.”

उनकी अम्मी सोचती थीं कि उनके बच्चे उनसे दूर नहीं जाएँगे और जयपुर में ही बस जाएँगे जहाँ वे सलीके का कोई काम करते हुए अपना जीवन गुज़ारेंगे. बरसों पहले उनके एक भाई काम की तलाश में बंबई गए थे, और कभी लौट कर नहीं आए. उनके पति की बेवक़्त मौत ने भी अकेले रह जाने के उनके डर को बढ़ाया था. तब इरफ़ान उन्नीस साल के थे, और सबसे बड़े बेटे के रूप में उनसे उम्मीद की जा रही थी कि वे अपने अब्बा की टायर की दुकान संभालेंगे. लेकिन उनकी आँखों में हिंदी फ़िल्मों के नायकों को देख-देख कर कुछ अलग ही उम्मीदें जगी हुई थीं: नया दौर के शानदार दिलीप कुमार, मृगया के बिंदास मिथुन चक्रवर्ती. किसी ने उन्हें कहा था कि वे चक्रवर्ती की तरह दिखते हैं: लंबा क़द, गहरा रंग, साधारण चेहरा. उन्होंने अपने बालों को फ़िल्मी हीरो के अंदाज़ में सँवारना शुरू किया. हाई स्कूल के बाद उन्होंने एक स्थानीय कॉलेज में शाम को होने वाली थिएटर क्लासेज़ में दाख़िला लिया और शहर में होने वाली कुछेक बॉलीवुड शूटिंग भी देखीं. फिर उन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली में दाख़िले के लिए अर्ज़ी दी, जिसमें उन्होंने प्रभाव ज़माने के लिए ऐसे नाटक भी गिनाए, जिनमें उन्होंने अभिनय नहीं किया था. उन्हें स्कॉलरशिप मिल गई और उन्होंने घर छोड़ दिया.

दिल्ली में इरफ़ान को एक बड़ा मौक़ा मिलते-मिलते रह गया. निदेशक मीरा नायर अपनी पहली फ़िल्म सलाम बॉम्बे के लिए अभिनेताओं की तलाश में ड्रामा स्कूल आई थीं. एक दिन एक क्लासरूम में उनका ध्यान इरफ़ान पर गया. “वे कोशिश नहीं कर रहे थे,” नायर ने उस वक़्त के उनके अभिनय को बाद में याद करते हुए कहा, “उनकी कोशिशें अदृश्य थीं. वे पूरी तरह डूबे हुए थे.” नायर ने उन्हें मुख्य भूमिका के लिए चुना और इरफ़ान सेमेस्टर के बीच में फ़िल्म क्रू के साथ ट्रेन से बंबई चले गए. लेकिन दो महीनों की रिहर्सल के बाद, नायर ने फ़ैसला किया कि इरफ़ान अपने किरदार के लिए मुनासिब नहीं दिखते थे. जब फ़िल्म पूरी हुई, तो इसमें इरफ़ान कुल मिला कर दो मिनटों के लिए दिखाई देते हैं, जो बच्चे के मुख्य किरदार को झाँसा देने वाला एक चिट्ठी लेखक है. लेकिन असली जीवन में ठगे जाने का अहसास शायद इरफ़ान को हुआ होगाः वे यह सोचते हुए उतनी दूर एक नए शहर में गए होंगे कि उन्हें भूमिका मिल गई है, लेकिन आख़िर में शूटिंग से पहले ही उन्हें दिल्ली की ट्रेन पर सवार होना था. जैसा कि वे बाद में कहते, पहला रोल, “मेरा पहला धक्का भी बन गया था”.

नायर को उन्हें अपनी किसी फ़िल्म में दोबारा लेने में और बीस साल लगे. फ़िल्म थी द नेमसेक. इसमें हैरानी की बात नहीं है कि इरफ़ान को इतने समय तक ख़ाक छाननी पड़ी, क्योंकि बॉलीवुड में अभिनेताओं की कोई अहमियत नहीं है, जब तक वे बॉक्स ऑफ़िस के बादशाह न बन जाएँ या फ़िल्मी घरानों के वारिस न हों. किसी भी हिंदी फ़िल्म के किसी भी सीन के बैकड्रॉप में देखें और आपको एक अच्छा अभिनेता दिखाई दे जाएगा – अपनी लचर भूमिकाओं के बावजूद एक अच्छा अभिनेता. जेम्स बाल्डविन ने एक बार लिखा था, “प्रतिभा की अहमियत नहीं है. मैं बहुत सारे प्रतिभावान खंडहरों को जानता हूँ.” बंबई में तीस बरस पहले, पश्चिमी इलाक़ों के प्रोडक्शन हाउसों के आस-पास, शायद आपको उतने ही प्रतिभाहीन दिग्गज मिल जाते. एक मशहूर पटकथा लेखक का एक नंगे बदन शहज़ादा था जो हर दूसरे सीन में अपनी पेशियाँ दिखाता था (और इन दिनों भी अपने से तीस साल छोटी औरतों के साथ अदाकारी करते हुए यही करता है). एक ताक़तवर निर्माता का बेटा था जो बास्केटबॉल कोर्ट में, जो तब भारत में दुर्लभ हुआ करता था, अपनी फ़िल्मों के रोमांटिक नायक-नायिकाओं की आज़माइश दिखा-दिखा कर देश का सबसे बड़ा कमाऊ निर्देशक बन गया. उसने उद्योग को ग्रामीण दर्शकों से दूर करते हुए धनी, लेकिन उतने ही रूढ़िवादी, प्रवासी भारतीयों की तरफ़ मोड़ दिया. और फिर एक अधेड़ उम्र का निर्देशक था जो अपनी हर फ़िल्म के बीच में नमूदार हो जाता. वह किसी गाने या किसी दृश्य के बीच में आता और अपनी हैट के नीचे से कैमरे को घूरता, ताकि आप भूल न जाएँ कि आप उसकी फ़िल्म देख रहे हैं.

ऐसे माहौल में इरफ़ान ने अपने पाँव टिकाने की भरसक कोशिशें कीं. जैसे कि एक बार उनसे कहा गया कि हैट पहनने वाले शोमैन डायरेक्टर ने इरफ़ान को कहीं एक्टिंग करते हुए देखा था और वह किसी भूमिका के लिए उन पर विचार कर रहा है. इसके बाद इरफ़ान ने उस डायरेक्टर की कॉल का महीनों तक इंतजार किया, जो नहीं आनी थी. कास्टिंग एजेंट उनके पोर्टफ़ोलियो को एक नज़र देखते और अलग-अलग किस्म की भूमिकाएँ करने के लिए उन्हें फटकारते. उनसे कहा गया कि वे अपने हुलिए के साथ छेड़-छाड़ न करें, और हरेक फ़िल्म में एक ही तरह के किरदार बनने की कोशिश करें. उन बरसों में उन्होंने टेलिविज़न के लिए काम करते हुए गुज़ारा किया, ये ऐसे धारावाहिक होते हैं जहाँ एक एक्शन एक बार अपने रियल टाइम में होता है, और फिर दोबारा, दो बार, स्लो मोशन में, ताकि दर्शकों को आँखें बंद करके भी यह पता रहे कि क्या हो रहा है. उस दुनिया में एक अभिनेता का अभिनेता क्या कर रहा था? निर्माता उन सेट्स से इरफ़ान को हटा देते क्योंकि वे अपने संवादों के बीच में ठहर जाते. सिनेमेटोग्राफ़र चाहते कि जब वे बोल रहे हों तो कैमरे में देखें.

नाट्य विद्यालय में ही उनकी मुलाक़ात सिकदर से हुई थी, जो एक पटकथा लेखक हैं. उन्होंने 1995 में शादी कर ली थी और अब उनके एक बेटा था. सिकदर ने उन्हें कुछेक शो दिलाए थे, जिनमें वे एक लेखक के रूप में काम कर रही थीं. लेकिन इरफ़ान को 90 के पूरे दशक में कोई मुख्य भूमिका नहीं मिली. एक बार वे काम के लिए इतने बेक़रार थे कि जब किसी ने एक पहाड़ी पर एक टीवी टावर की तरफ़ इशारा किया और मज़ाक़ करते हुए कहा कि इरफ़ान को वहाँ काम मिल सकता है, तो वे सचमुच में उस पहाड़ी पर चढ़ गए थे.

मैं पहाड़ी के उस टावर को जानता हूँ: वह मेरे बचपन के नज़ारों का हिस्सा हुआ करता था. मेरी माँ भारत की सार्वजनिक प्रसारण सेवा में एक इंजीनियर के रूप में काम करती थीं. हर कुछ साल में देश के दूसरे छोर पर एक दूसरे टीवी स्टेशन में उनका तबादला हो जाता था, जिसका मतलब था कि हमें एक घर से दूसरे घर बसते रहना होता था, जहाँ करीब ही टीवी टावर हुआ करते थे. जिन दिनों इरफ़ान धारावाहिकों में अपना मुकाम पाने की जद्दोजहद कर रहे थे, मेरी माँ उन कड़ियों को तरंगों के ज़रिए हफ़्ते दर हफ़्ते लोगों के घरों में पहुँचाने में मदद कर रही थीं. बाद में, जब अपने इंटरव्यू में इरफ़ान उन धारावाहिकों के बारे में बातें करते थे, तो मुझे उनके नाम तो याद थे, लेकिन उनके नायकों या कहानियों की मुझे कोई याद नहीं थी, उनके किसी दृश्य में इरफ़ान की कोई याद तो और भी दूर की बात है. जो बात मुझे याद है वह थी ऊब, उन दोपहरियों और शामों की कभी ख़त्म न होने वाली नीरसता, जब पाँच दिनों में फैला हुआ क्रिकेट का एक खेल देखने के लिहाज से सबसे कम तकलीफ़देह चीज़ महसूस होती थी. अर्थव्यवस्था के खुलने के साथ कुछ साल पहले केबल चैनल शुरू हुए थे, लेकिन उनमें दिखाई जाने वाली चीज़ें अभी भी फीकी थींः भड़कीले कॉमेडी शो, हिंदू मिथकों के मातमी रूपांतरण, सांता बारबरा और द बोल्ड एंड द ब्यूटीफ़ुल के घिसे-पिटे प्रसारण. सप्ताहांतों में, बच्चों के पास घंटे भर के डिज़्नी कार्टून हुआ करते थे, जिनमें ज़्यादातर डकटेल्स और टेलस्पिन का प्रसारण होता – जबकि शनिवार के दिनों में वे स्कूल छोड़ कर एक उपदेश झाड़ते रहने वाले लोकल सुपरहीरो को देखते, जो अपनी पहचान छुपाने के लिए चश्मे पहने हुए एक बेवकूफ़ आदमी के भेस में दिखता.

अपने खोए हुए दशकों पर वापस सोचते हुए इरफ़ान महसूस करते थे कि उनकी सबसे बड़ी चुनौती इस शिल्प में अपनी दिलचस्पी को बनाए रखने की थीः “अपनी प्रेरणा को क़ायम रखने के लिए मुझे तरीक़े निकालने पड़े.” बंबई आने के बाद जब एक भूमिका के लिए पहली बार उन्हें पैसे मिले, तो उन्होंने एक वीएचएस प्लेयर ख़रीदा, ज़ाहिर तौर पर “अपने ख़ुद के पेश से ऊबने से” बचने के लिए. उन दिनों का भारतीय दर्शक भी उतना ही ऊबा हुआ था. मुझे याद है कि करने के लिए कितनी कम चीज़ें थीं: आने वाली फ़िल्मों के गीत सुनना, फिर उन्हीं गीतों के वीडियो को टीवी पर देखना, ऐसा होता कि जब तक हम सिनेमाघर जाकर फ़िल्म देखते, हम गानों की धुनों की सीटियाँ बजा, उन्हें गुनगुना कर पैसा वसूल चुके होते.

कम से हमारी पीढ़ी के लिए दुनिया खुली जब कंप्यूटरों के साथ सीडी और डीवीडी बर्नर ड्राइव आए, जिन्होंने हमें टेलिविज़न और अगले शुक्रवार को फ़िल्म की रिलीज़ की तानाशाही से मुक्ति दिला दी. ग्यारह साल का होते-होते, मैं हर तीसरे पहर अपने दोस्त के घर में हुआ करता था जहाँ बस मैं उसके बड़े भाई के एमपी3 कलेक्शन से डिस्क कॉपी करता. सड़कों पर फेरीवाले राशोमोन से लेकर होम अलोन से लेकर डीप थ्रोट तक, हर चीज़ के अवैध प्रिंट्स बेचा करते थे, और जल्दी ही वहाँ सिनेमाघरों में नई से नई फ़िल्म की धुंधली कैमरा रेकॉर्डिंग भी मिलने लगी, जिसका दाम बालकनी सीट की टिकट जितना होता.

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मुझे द वॉरियर फ़िल्म को एक पाइरेटेड प्रिंट में देखना याद है. इरफ़ान अपने करिअर में जान फूँकने का श्रेय इसी फ़िल्म को देते हैं. वह दृश्य भव्य तरीके से रचा गया था: लंबे बालों वाले, दुबले क़द के इरफ़ान धूप और रेत के उजाड़ विस्तार में एक तलवार लहराते हैं. फिर बाद में कटे हुए बालों में वे जब हिमालय की पहाड़ियों के जंगलों से होकर गुज़रते हैं तो एक ही साथ खोए हुए भी दिखते हैं और धुन के पक्के भी. इरफ़ान को एक मध्यकालीन जागीरदार के योद्धा की भूमिका निभाने के लिए अपनी बाँहें या सीना फुलाने की ज़रूरत नहीं थी. घोड़े पर सवार होकर जब वे गाँवों को लूटते चलते हैं, तब रोब से उनकी आँखें जगमगा रही होती हैं, और लूट लेने के बाद उसकी यातना से, जब वे अपने छोटे-से बेटे को एक खुले मैदान में मारे जाते देखने के लिए मजबूर कर दिए जाते हैं. इस रहस्यमय सौंदर्य और तबाही की दुनिया में ख़ामोशियाँ काफ़ी हैं. भावनाओं को भौंहों की हल्की-सी हरकतों और हाथों के हाव-भाव से जाहिर किया गया है, इस सारे ख़ून-ख़राबे के बावजूद हर कोई दबी आवाज़ में बातें करता है.

जब इस फ़िल्म के निर्देशक आसिफ़ कपाड़िया ने (जिन्होंने आगे चल कर गायिका एमी वाइनहाउस पर डॉक्यूमेंटरी एमी बनाई और ऑस्कर जीता) इरफ़ान का पहली बार ऑडिशन किया तो उन्हें लगा कि इरफ़ान “एक ऐसे आदमी की तरह दिख रहे हैं जिसने बहुत लोगों का क़त्ल किया हो, लेकिन उसे इस सबके बारे में बहुत अफ़सोस महसूस होता हो.” कपाड़िया ने किसी भी फ़िल्म में इरफ़ान की मौजूदगी के बारे में सबसे बुनियादी बात को जान लिया था: फ़िल्म की कहानी उनके चेहरे पर चलती थी.

द वॉरियर कभी भी भारत के सिनेमाघरों में रिलीज़ नहीं हुई. (संयुक्त राज्य अमेरिका में रिलीज़ करने के अधिकार मीरामैक्स ने ख़रीदे थे, जहाँ बरसों तक हार्वी वाइन्श्टाइन के ठंडे बस्ते में रहने वाली यह एक और फ़िल्म थी.) लेकिन कुछेक नए निर्देशकों का ध्यान रोब और दहशत की अदाकारी करने की इरफ़ान की क़ाबिलियत पर गया और उन्हें दो फ़िल्मों में रोल दिए, जिन्होंने इरफ़ान के क़दम बंबई में जमाए: वे फ़िल्में थीं हासिल और मक़बूल. दोनों ही फ़िल्मों में उनके किरदारों ने बहुत सारे लोगों की हत्या की है, लेकिन वह मक़बूल है, जिसमें आप यह देख पाते हैं कि वे उन हत्याओं पर कैसा महसूस करते हैं. मक़बूल में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई थी. फ़िल्म में एक पल ऐसा है जब मक़बूल अपने सबसे अज़ीज़ दोस्त की लाश को घूर रहा है, जिसे मारने का हुक्म ख़ुद उसी ने दिया था, और कल्पना करता है कि मुर्दे ने अपनी आँखें फिर से खोली थीं. हैरान मक़बूल लड़खड़ा कर गिर पड़ता है. सेट पर शायद ऐसा हुआ था कि सीन करते हुए इरफ़ान इतने संजीदा थे कि उनके सह-अभिनेता नसीरुद्दीन शाह को ऐसा लगा कि शायद उन्होंने अपना संतुलन खो दिया था, और उन्होंने सहारा देने के लिए अपना हाथ बढ़ा दिया. नाट्य विद्यालय में किसी वक़्त शाह इरफ़ान के आदर्श थे, और अब वही शाह यहाँ इरफ़ान के अभिनय पर मुग्ध थे. “यू आर ब्लडी गुड,” उन्होंने इरफ़ान से कहा.

जब तक मैं एक पाइरेटेड प्रिंट में द वॉरियर देख पाया था, तब तक इरफ़ान अपनी धमाकेदार भूमिकाओं से कइयों को प्रभावित कर चुके थे. द नेमसेक में एक खोए हुए से पिता के रूप में अलग दिखाई पड़े थे. द दार्जिलिंग लिमिटेड में वेस एंडरसन ने उनके लिए एक भूमिका लिखी थी. अ माइटी हार्ट और स्लमडॉग मिलियनेयर दोनों में उन्हें पुलिस की भूमिकाओं में लिया गया था. भारत में, लाइफ़ इन अ मेट्रो ने दिखाया कि इरफ़ान को हमेशा एक संजीदा हत्यारे की भूमिका निभाने की ज़रूरत नहीं है. यहाँ तक कि वे एक टीवी विज्ञापन में भी दिखे, जो अपने सेटअप की वजह से बहुत लोकप्रिय हुआ: साठ सेकेंड तक इरफ़ान पर्दे पर चुलबुले ढंग से दर्शक से बातें करते रहे.

वे दिन मेहरबान थे. बॉलीवुड आख़िरकार मुल्क में यथार्थवाद की भूख मिटाने को तैयार था. फ़िल्म निर्माता अब उम्मीद कर सकते थे कि शहरों में चुनिंदा दर्शकों के लिए फ़िल्म रिलीज़ करके भी वे कामयाब हो सकते हैं, जिसका मतलब था कि वे बड़े-बड़े स्टूडियो और घिसे-पिटे नाच-गानों से बचे रह सकते थे, और असल में नए अभिनेताओं को मुख्य भूमिकाओं में ले सकते थे.

एक दशक पहले, बंबई में अक्सर मुझे अहसास होता था कि हम खोए हुए ज़माने की भरपाई कर रहे हैं. बचपन में बैठ कर बिताए गए वो सारे घंटे जब हम कुछ देखने भर से महरूम रहते थे. मैं वाईएमसीए में एक रूममेट के साथ रहता था जो दिन-रात अपने लैपटॉप से चिपका रहता था, और कुछ न कुछ देखता रहता था. डी. के पास 500जीबी के कुछ हार्ड ड्राइव्स थे, जो ताज़ातरीन जापानी एनिमी सीरीज़, पिछले तीस वर्षों में दिखाए गए हरेक अमेरिकी टीवी शो के एपिसोड्स, और अंतरराष्ट्रीय फ़िल्मों से भरे हुए थे. यह एक हैरान कर देने वाला आर्काइव था, जिसे फ़िल्म निर्देशकों के उपनामों के क्रम में सहेजा गया था. सवेरे-सवेरे वह अपनी डेस्क पर चाय पीते हुए बैठता, उसकी आँखें लाल होतीं, जिनमें उस शो या फ़िल्म की यादें होतीं जिन्हें उसने सारी रात जग कर देखा था. सप्ताहांत में वह सबअर्ब में अपने एक दोस्त के घर जाता, ताकि फ़िल्मों का अपना ख़ज़ाना और बढ़ा सके. जिस सलीके के साथ वह एक दिन में एक सीरियल पूरा करता, या फिर डायरेक्टर की डीप कट की तलाश करता रहताः मैं कभी भी उसे एक निठल्ला दर्शक (पैसिव बिंजर) नहीं कह पाऊंगा. डी. के लिए प्रोग्राम देखना एक काम था.

इरफ़ान भी अपना काम करते हुए कामयाबी हासिल करने की कोशिशें कर रहे थे. बॉलीवुड में, अक्सर इसका मतलब होता है वह करना जो लोगों को लुभा सके. जैसा कि उन्होंने एक बार एक इंटरव्यू में कबूल किया था, “आपको एक अभिनेता के रूप में बारीकी की ज़रूरत नहीं है. सिर्फ़ अंदाज़ ही काफ़ी है.” वे ख़ुद को दोहराना नापसंद करते थे. अगर उन्हें एक सीन के लिए आठ टेक देने को कहा जाता, वे उन्हें आठ अलग-अलग तरीकों से करते, और बाक़ी का फ़ैसला करने का काम निर्देशक पर छोड़ देते. बहुत नाज़ुक और बारीक़ भूमिकाओं में भी, इरफ़ान यह नहीं मानते थे कि अभिनेता हमेशा एक किरदार में बदल सकता है, और वे शोध के बजाए अपनी परिकल्पना पर अधिक भरोसा करते थे. जैसे मिसाल के लिए द नेमसेक में अमेरिका में बसे एक भारतीय आदमी का किरदार अदा करने से पहले उन्होंने कभी भी अमेरिका नहीं देखा था. वे समझते थे कि एक प्रवासी के अंदरूनी तनावों को जाहिर करने के लिए कपड़े और बोलने के सही लहजे के होने की एक सीमित भूमिका है. उन्होंने अपनी यादों से काम लिया, जब वे कनाडा गए थे और वहाँ दुकानों में काम करते हुए रूखे दिखने वाले प्रवासी मज़दूरों पर ग़ौर किया था. “कोई चीज़ थी जो मेरे दिमाग में अटक गई थी,” उन्होंने 2010 में टाइम पत्रिका को बताया. “एक अजीबोग़रीब उदासी...एक लय जो अधेड़ लोगों में हुआ करती है.” द वॉरियर में वे उस दृश्य पर पूरी तरह यकीन नहीं कर पाए, जहाँ उनका किरदार अपने बेटे की हत्या होते हुए देखता है. इस पल पर काम करते हुए उन्होंने ख़ुद को समझाया कि फ़िल्म की शूटिंग का अनुभव ज़िंदगी की तरह होता है, और “कभी-कभी आपको एक ज़िंदगी जीनी पड़ती है क्योंकि आपके पास विकल्प नहीं होता.” इरफ़ान की कहानियों में मेरी सबसे पसंदीदा कहानी 7 खून माफ़ के सेट को लेकर थी, जहाँ उन्हें प्रियंका चोपड़ा की अदाकारी वाली नायिका सुज़ाना के सात पतियों में से तीसरे के रूप में चुना गया था. इरफ़ान इस किरदार के साथ जुड़ नहीं पा रहे थेः “बीवी को पीटने वाला” एक उर्दू शायर. शायर से उम्मीद की जा रही थी कि वह अपनी बदसलूकी जारी रखे, ताकि सुज़ाना जब उसकी हत्या करे तो दर्शकों को उससे हमदर्दी हो. इस दृश्य के लिए तैयार होते वक़्त ऐसा हुआ कि इरफ़ान इत्तेफाक से आबिदा परवीन की गाई हुई एक ग़ज़ल सुन रहे थे. “एकबारगी,” उन्होंने कपाड़िया को बाद में बताया, “उस ग़ज़ल ने मेरे चारों तरफ़ पूरी की पूरी एक दुनिया तैयार कर दी.” ग़ज़ल ने एक शायर की अंदरूनी ज़िंदगी में उतरने में उनकी मदद की, उसके व्यवहार के ढंग को तलाशने में उनकी मदद की. महज कुछ पलों के भीतर वे ख़ुद को बदलने में कामयाब रहे.

टॉक शो में इरफ़ान अक्सर एक कहानी सुनाते थे, कि उन्होंने अपनी अम्मी को द नेमसेक के प्रीमियर के लिए बंबई बुलाया. बताते हैं कि स्क्रीनिंग के बाद, उनकी अम्मी ने उनसे निर्देशक मीरा नायर से मिलवाने को कहा. उन्होंने कहा, “मुझे बात करने दो उनसे. मैं पूछना चाहती हूँ कि दुनिया में इतने सारे लोगों में से फ़िल्म में मारने के लिए उन्हें मेरा बेटा ही मिला था?” ज़ाहिर है कि उनकी अम्मी मज़ाक़ कर रही थीं. लेकिन पहली नज़र में उनके किरदार की बार-बार होने वाली मौतें देख कर लगता है कि ये हमारे अहसासों के साथ खेल रही हैं. उन्हें जो भी स्क्रिप्ट मिलते, ऐसा लगता कि वे इरफ़ान के किरदार के आख़िरकार लापता हो जाने की फैंटेसी में सराबोर हैं. लेकिन मौत एक ऐसी स्क्रिप्ट भी है, जिसे सभी पूरी तरह बेदाग़ देखना चाहते हैं, जिसमें कोई ग़लती न होः यह “कोशिशों” का हासिल है – वही लफ़्ज़ जिसका इस्तेमाल नायर ने ड्रामा स्कूल में इरफ़ान को अभिनय करते हुए देख कर किया था. और अगर आप इरफ़ान ख़ान की अनेक भूमिकाओं में गहरे तक उतरें, तो आपको कोशिशें करता हुआ एक शख़्स मिलेगा, एक शख़्स जो बिना थके, लगातार किसी चीज़ की तलाश में है. चाहे वे बेपरवाही (मक़बूल) दिखा रहे हों, या दर्द (द वॉरियर), या हिकारत (स्लमडॉग मिलियनेयर), एक जद्दोजहद हमेशा ही साफ़ ज़ाहिर होती है. लाइफ़ इन अ मेट्रो में, मोंटी तो एक बीवी ही खोजने की कोशिश कर रहा है. फ़िल्म के अंत में, मोंटी श्रुति का हौसला बढ़ाता है कि वह अपने तकलीफ़देह रिश्तों को भूल कर किसी नए इंसान को डेट करने की कोशिश करे. “टेक योर चांस, बेबी,” वह कहता है. आप महसूस करते हैं कि यह ख़ुद इरफ़ान बोल रहे हैं, और दर्शक को मशविरा दे रहे हैं कि वह अपनी तलाश जारी रखे.

 

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इरफ़ान आख़िरकार किस चीज़ की तलाश में थे? उन्होंने सीधे जवाब बहुत कम ही दिए हैं. सार्वजनिक रूप से बोलते हुए जीवन के रहस्यों पर उन्होंने गूढ़ बातें ही कही हैं. उनकी मौत के कुछ ही घंटों के भीतर, लाइफ़ ऑफ़ पाई फ़िल्म का एक दृश्य वायरल हुआ, जिसमें वे “छोड़ देने/मुक्त कर देने” को लेकर एक बहुत भावुक संवाद बोले रहे थे. उन्होंने अपने नाम तक में बदलाव किए, अंग्रेज़ी में इरफ़ान लिखते वक़्त इसमें एक और ‘आर’ जोड़ दिया, अपने नाम से ख़ान हटा दिया, क्योंकि “मुझे अपने काम से पहचाना जाना चाहिए, न कि अपनी जाति या धर्म या ऐसी बातों से.” बंबई में अपनी अमेरिकी शोहरत के बावजूद उन्होंने एक स्टार की तड़क-भड़क से बचते रहे. वे मड आइलैंड में रहते थे, जो स्टूडियो के इलाक़ों और बंबई के उन मुहल्लों से एक फ़ेरी के सफ़र जितना दूर है जहाँ फ़िल्मी सितारे आम तौर पर अपनी मशहूर हवेलियों और अपार्टमेंटों की शानो-शौकत में रहते हैं. यह दूरी उन्होंने एक तरह से ख़ुद चुनी थीः वे बॉलीवुड के मसीहाई नायकों से अपनी नफ़रत को कभी छोड़ नहीं पाए. इरफ़ान को विदेशी फ्रेन्चाइज़ फ़िल्मों में चाहे जितने भी छोटे-मोटे रोल मिलते रहे हों, भारत में इरफ़ान को अपनी पहली धमाकेदार सफलता हिंदी मीडियम से मिली थी, जो उनकी मौत के महज तीन साल पहले रिलीज़ हुई थी. बड़ी हॉलीवुड फ़िल्मों में अपनी एक रूढ़ छवि बनने से ऐसा लगता है कि उन्हें ख़ास परहेज़ नहीं था, जहाँ वे अक्सर एक “अंतरराष्ट्रीय शख़्स” के रूप में नज़र आते हैं. लेकिन उन्होंने द मार्शन और इंटरस्टेलर में भूमिकाएँ नकार दी थीं, क्योंकि उनके प्रोडक्शन डेट्स कुछ छोटी परियोजनाओं के साथ टकरा रही थीं. और फिर स्लमडॉग मिलियनेयर के सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का ऑस्कर जीतने के बाद उनकी वह नहीं भूलने वाली तस्वीर, जिसमें वे उदास से दिखाई पड़ते हैं जबकि उनके चारों तरफ़ फ़िल्म की टीम मुस्कुरा रही है और ख़ुशी मना रही है.

उनकी इस ख़ासियत का उपयोग इन ट्रीटमेंट और द लंचबॉक्स दोनों फ़िल्में करती हैः कि इरफ़ान जहाँ भी होते हैं, थोड़े असंतुष्ट दिखते हैं. “उनके जैसा तन्हा चेहरा मैंने नहीं देखा है,” इन ट्रीटमेंट के एक एपीसोड में इरफ़ान के किरदार सुनील के बारे में पॉल का कहना है, जिसे गैब्रिएल बायर्न ने निभाया है. और सचमुच सुनील अकेला है, भले ही वह ब्रुकलिन में अपने बेटे अरुण और अपनी बहू जूलिया के साथ रहता है. छह महीने पहले कलकत्ता में उसकी बीवी का निधन हो गया था. हर कुछ एपिसोड में, सुनील पॉल के दफ़्तर में बैठ कर बेमन से अपनी परेशानियों को उसके सामने बताता है – कि कैसे उसकी बीवी ने अपने अंतिम पलों में यह सुनिश्चित किया था कि सुनील अपने बेटे के पास विदेश चला जाएगा, कि कैसे वह इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकता कि जूलिया उसे हफ़्ते भर का ख़र्च देती है और इस पर नज़र रखती है कि वह अपने पोते-पोतियों के साथ कैसे समय गुज़ारता है, कि वह कैसे उसके बेटे को आरोन कहती फिरती है, कैसे उसे पूरी तरह यक़ीन है कि जूलिया का कोई अफ़ेयर चल रहा है. जूलिया को लेकर सुनील की सनक में एक उदासी हैः उसकी आँखें रोशन हो उठती हैं जब वह बताता है कि वह कैसे चलती है, उसका “दम घोंट देने” का उठने वाला ख़याल, जब वह उसे हँसते हुए सुनता है. धारावाहिक निर्माता सुनील की इस सिहरन पैदा करती आदत पर बार बार लौटते हैं, लेकिन वे यह बात चूक जाते हैं कि यही नापसंदीदगी उन्हें एक नए मुल्क में हर सुबह जागने की एक वजह देती है. कुछ पलों के लिए वह भूल जाता है कि तीस साल उसके साथ रहनेवाली उसकी बीवी गुज़र चुकी है. कहीं गहरा अलगाव सुनील और अरुण के बीच में है, जूलिया महज उसकी दबी हुई भावनाओं को ज़ाहिर करने का एक मोहरा है. बेटा बहुत जल्दी ही बहुत दूर चला गया है, और पिता उसके साथ नहीं चल पा रहा है.

सुनील और अरुण के बीच में जो दूरी है, ठीक वही दूरी इरफ़ान ने अपनी ज़िंदगी में तय की थीः जयपुर से जुरासिक पार्क की दूरी, बंबई में एक दफ़्तर की इमारत की छत से लेकर न्यूयॉर्क में एक थेरेपिस्ट के सोफ़े के बीच, मक़बूल में एक उदास गैंग्स्टर के किरदार निभाने से लेकर जुरासिक वर्ल्ड में बोर्डरूमों में आवाजाही करने वाले सिमोन मसरानी तक. एक साथ मिला कर देखें तो उनके द्वारा निभाए गए किरदार पिछले तीन दशकों में दक्षिण एशिया के वैश्वीकरण की कहानी बुनते हैं: ये वो आदमी हैं जिनकी ज़िंदगियाँ अपने पिताओं की ज़िंदगियों से पूरी तरह अलग दिखती हैं. चाहे वे कितनी भी कोशिशें करें और उनकी महत्वाकाँक्षाएँ चाहे जो हों, उनकी निजी ज़िंदगियाँ कुंद हो चुकी हैं. वे नहीं जानते कि तेज़ी से बदलती हुई एक दुनिया में वे किस तरह एक मुकम्मल सलीका हासिल कर सकें. पत्रकार असीम छाबड़ा ने अपनी किताब इरफ़ान ख़ान: द मैन, द ड्रीमर, द स्टार में लिखा है कि इरफ़ान सेक्स दृश्य करने को लेकर बेहद संवेदनशील थे. शायद इसीलिए उनके इतने सारे किरदार सचमुच में अभी प्यार करना ही सीख रहे होते हैं. पान सिंह तोमर में उन्हें अपनी बीवी को सिखाना पड़ता है कि कैसे चूमते हैं. रोड टू लद्दाख में, जिसमें वे एक फ़रार शख़्स की भूमिका निभा रहे हैं, उनकी प्रेमिका बताती है कि चूमते समय होंठों के आपस में लिपटने का सही तरीका क्या है. “मुझे लगता है कि तुम ज़्यादा फ़िल्में नहीं देखते हो,” वह बिस्तर में उन्हें छेड़ती है. “हम इन्हीं चीज़ों को सीखने के लिए फ़िल्में देखते हैं.”

द लंचबॉक्स में, साजन फर्नांडीज़ न खाना बनाता है और न फ़िल्में देखता है. उसकी बीवी गुज़र चुकी है, उसके न बच्चे हैं और न दोस्त. वह जल्दी ही नौकरी छोड़ देने और बंबई से चले जाने का फ़ैसला करता है. बरसों पहले, जब उसकी बीवी अभी ज़िंदा थी, वह उसकी पसंदीदा पुरानी टीवी कॉमेडियाँ टेप पर रेकॉर्ड किया करता था, ताकि वह सप्ताहांतों में उन्हें फिर से देख सके और उन्हीं मज़ाक़ों पर फिर से हँस सके. अब वह रातों को जाग कर उन पुराने टेपों को देखता रहता है, अपने पोर्च पर सिगरेट पीते हुए, सुबह का इंतज़ार करता है जब उसे काम पर जाना होगा. (लाइफ़ इन अ मेट्रो का मोंटी अगर श्रुति से नहीं मिला होता तो शायद वह साजन बन गया होता. इन ट्रीटमेंट के सुनील को भी शायद ऐसी ही ज़िंदगी मिले अगर उसे वापस भारत भेज दिया जाए.) जब एक लंच डिलीवरी सर्विस ग़लती से ऑर्डरों को अदल-बदल देती है, तब साजन का एक युवा हाउस वाइफ़ इला के साथ चिट्ठियों का लेन-देन शुरू होता है. वह उसे अपने अतीत के बारे में बताता है, कि कैसे वह चीज़ें भूल जाया करता है क्योंकि उसकी ज़िंदगी में “कोई नहीं है जिसे वो ये बातें बता सके”. इला उसे अपने सबसे उदास ख़्यालों के बारे में बताती है, कि कैसे उसे कभी-कभी अपने अपार्टमेंट की खिड़की से कूद जाने की ख़्वाहिश होती है. वे मिलने और भूटान भाग जाने का फ़ैसला करते हैं. अपनी पहली डेट पर वे एक कैफ़े में पहुँचते हैं, और साजन इला को एक टेबल पर अकेले इंतज़ार करते हुए देखता है. लेकिन वह ख़ुद को इसके लिए तैयार नहीं कर पाता कि वह उसके पास जाए और उसे अपना चेहरा दिखा पाए. वह एक दूसरी टेबल पर बैठता है और उसे अपने आने के इंतज़ार में दरवाज़े की तरफ़ देखते हुए देखता रहता है. उसे अंदेशा है कि रोमांस करने के लिहाज़ से उसकी उम्र काफ़ी हो चुकी है.

 

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इला के साथ साजन ने मौक़ा भले खो दिया हो, फ़िल्म में इरफ़ान के अभिनय की सबने तारीफ़ की. द लंचबॉक्स ने कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में एक अहम अवार्ड हासिल किया. सोनी पिक्चर्स क्लासिक्स ने अमेरिका में इसको डिस्ट्रीब्यूशन के लिए चुना, जहाँ ऑस्कर वीक में इसने अच्छा कारोबार किया. अमेरिकी मीडिया में इसकी समीक्षाएँ इस पर इतनी फ़िदा थीं कि मेरे मन में इस तारीफ़ पर थोड़े सवाल भी उठे. न्यूयॉर्क और लोस एंजेलेस के लोग क्यों अकेलेपन की इस तस्वीर के साथ ख़ुद को जोड़ पा रहे थे, वह अकेलापन जिसे मैं बंबई से जोड़ कर देखता हूँ? आख़िरकार, बहुत दिन नहीं हुए जब एकेडेमी अवार्ड्स में स्लमडॉग मिलियनेयर पर पुरस्कारों की बौछार हुई थी जो बॉलीवुड के पैमाने पर भी एक चलताऊ संगीतमय फ़िल्म थी. लेकिन मेरे संदेह ज़्यादातर एक प्रवासी इंसान के अपने नए घर के बारे में बेचैनियों से पैदा हुए थे, क्योंकि तब तक मैं एक ग्रेजुएट छात्र के रूप में मिडवेस्ट (संयुक्त राज्य अमेरिका) आ चुका था. जिस पल मैंने ओहा हवाई अड्डे पर क़दम रखे थे, तभी से मैं इस बात को लेकर सचेत था कि मुझे ग़लती से कोई और न समझ लिया जाए, कोई ऐसा जो भारतीय होने की बनी-बनाई धारणाओं पर खरा उतरता हो. “क्रिएटिव राइटिंग, सच में?” मेरे पासपोर्ट पर मुहर लगाने वाले आप्रवासी अधिकारी ने मेरा आई-20 फ़ॉर्म स्कैन करते हुए दूसरी बार निगाह डाली थी, जो निस्संदेह ही भारतीय छात्रों के इंजीनियरिंग और लाइफ़ साइंसेज़ कोर्सेज़ में दाख़िला लेकर आने का आदी था. आयोवा सिटी में मेरे मकान मालिक मुझे पास के एयरपोर्ट से लेने के लिए आए और इस बात से हैरान थे कि मैं “अच्छी अंग्रेज़ी” बोलता था.

आयोवा शहर में ही मैंने पहली बार द लंचबॉक्स देखी थी. यह पेड मॉल में एक कमरे का एक सँकरा-सा सिनेमाघर था. इसके पहले उस दोपहर रिचर्ड लिंकलेटर की ब्वॉयहुड दिखाई जा चुकी थी, और दर्शकों का एक हिस्सा रुक गया था कि शाम को एक भारतीय फ़िल्म का शो देखते जाया जाए. उनमें से एक लेखक भी थे, जो आयोवा राइटर्स वर्कशॉप में एक फ़ैकल्टी भी थे. स्क्रीनिंग के बाद लेखक और उनकी पत्नी ने अपनी सीटों से मेरी तरफ़ हाथ हिला कर इशारा किया. जैसा कि होता है, हम फ़िल्म देखने के बाद फ़िल्म के बारे में बातें करने लगे थे. “इसे देखते हुए मुझे इतनी भूख महसूस हुई, पता है,” लेखक ने कहा, “ख़ाना! मसाले!” वे अपनी बीवी की तरफ़ मुड़े. “हनी, आज बाहर खाने में कोई बुराई तो नहीं है?”

जिस बात में मुझे एक नाकाबिले-बयान चीज़ की झलक मिली थी - एक शहर में दो अकेले लोग, उसी में उन्हें एक मौक़ा दिखाई पड़ा थाः उनके डिनर का प्लान. और यही हुआ भी. उस रात जब मैं डाउनटाउन के अकेले दक्षिण भारतीय रेस्तराँ के रास्ते से गुज़र रहा था, मैंने उन्हें खिड़की के पास बैठे हुए, नान तोड़ते देखा. जब मैंने दोबारा फ़िल्म देखी, मैंने महसूस किया कि उसमें मसालों या ख़ाने का मुश्किल से ही कोई क्लोज़-अप शॉट था: आप ज़्यादातर इला को सवेरे-सवेरे लंचबॉक्स के डिब्बों को भरते हुए और दोपहर में साजन को अपनी उँगलियाँ चाटते हुए ही देखते हैं. मेरा ख़्याल है कि लेखक के लिए जब रात भारत के नाम थी, तो मसाले उसका हिस्सा होने ही थे.

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“तुम लाइफ़ ऑफ़ पाई वाले आदमी जैसे दिखते हो.” आयोवा सिटी में मैंने यह बात इतनी बार सुनी है कि मैं जानता हूँ कि यह सिर्फ़ बूढ़े गोरे लोगों की ही दिक़्क़त नहीं है. थिएटर में मेजर कर रहे और कैफ़े में बारिस्ता का काम करने वाले कमसिन लोग, पतझड़ में रेज़ीडेंसी के लिए आकर रहने वाले अंतरराष्ट्रीय लेखकः मुझसे मिलने के कुछ ही पलों के बाद वे सभी याद करने लगते कि आख़िरी बार कब उन्होंने पर्दे पर एक भारतीय को देखा था. और फिर वे जो कहते, उसके बारे में उन्हें यक़ीन था कि वह तारीफ़ थी. मेरे भीतर के बच्चे की ख़्वाहिश होती कि काश वे इरफ़ान के बारे में बोल रहे होते, लेकिन शायद वे कहना चाहते थे कि मैं उन्हें सूरज शर्मा की याद दिलाता था, जिसने ज़्यादातर फ़िल्म में समंदर में फँसे एक अधनंगे बच्चे का किरदार निभाया था. मैं शर्मा जैसा बिल्कुल भी नहीं दिखता हूँ, लेकिन जहाज़ की दुर्घटना के दौरान मुझे पाई के साथ एक लगाव महसूस हुआ था. जहाज़ पर सवार होने से पहले बच्चे ने देखा था कि उसके पिता के चिड़ियाघर को बंदरगाहों पर सवार किया जा रहा है, वे सारे जानवर जिनको वे अपनी नई ज़िंदगी में ले आना चाहते थे. मुझे बंबई की याद आती, और मुझे फ़िक्र थी कि बाहर रहते हुए मैं उस जगह को भूल जाऊँगा. उन बरसों में मैंने जो कहानियाँ लिखीं, उनमें मैं मन ही मन शहर की रचना करता था, सड़क दर सड़क. मिडवेस्ट में उन कहानियों को लिखना और दूसरों के साथ उन पर चर्चा करना दूरी के बारे में एक सबक़ हासिल करने जैसा थाः मुझे इस बात का अहसास हो गया था कि चीज़ें जब सफ़र करती हैं तो उनका जस का तस बने रहना मुश्किल होता है. और यह बात भी साफ़ हो गई कि अपने अतीत को ढोते रहने का काम भी बहुत मुश्किल है. एक ऐसा वक़्त भी था जब एक कमरे में भरे हुए बारह ग्रेजुएट छात्र दो घंटों तक इस पर जूझते रहे कि मेरे किरदारों को एक दूसरे के साथ हिंदी में बातें करना चाहिए या नहीं. या फिर एक दोपहर तो मेरे सब्र का बाँध ही टूट गया जब किसी ने सुझाव दिया कि एक दूसरे लेखक द्वारा लिखी जा रही अलास्का के एक भारतीय परिवार की कहानी बेहतर हो सकती है अगर उनके बच्चे और अधिक करी खाएँ. हर सुबह मैं उस पन्ने पर वापस आता, वे सड़कें और टहलने की खुली जगहें (प्रामनेड), जहाँ मैं बरसों तक चला करता था, लेकिन अमेरिकी पाठक जिस बात पर अटक जाते वो यह था - क्या “मुंबई में डबल पार्किंग मुमकिन है,” - यह मेरी एक कहानी पर मिलने वाली हू ब हू टिप्पणी है. तब मेरे ज़ेहन में दशकों पहले इरफ़ान द्वारा वीएचएस प्लेयर ख़रीदने की बात याद आई, ताकि वे विदेशी अभिनेताओं के काम से वाक़िफ़ रह सकें. अपने दोस्त डी. की याद भी आई जो बंबई में रात-रात भर जाग कर फ़िल्में देखता था ताकि दुनिया भर से वाक़िफ़ रह सके. हमारे मुल्क में हम लोग भले ही पश्चिम के साथ अपनी खाई को पाटने के लिए अपनी पूरी ज़िंदगियाँ लगा दें. लेकिन यहाँ पश्चिम में रहने वाले लोगों में काफ़ी सारे हमसे वाक़िफ़ होने की कोशिश नहीं कर रहे थे.

 

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जिस साल इरफ़ान के कैंसर का पता लगा, उससे ठीक पहले वाला साल उनका सबसे मसरूफ़ साल था. छाबड़ा के मुताबिक, इरफ़ान ने 2015 से 2018 के बीच सोलह फ़िल्में कीं. मदारी जैसी एक अंध-राष्ट्रवादी थ्रिलर बना कर वे एक निर्माता भी बने. इस फ़िल्म में वे एक ऐसे आदमी का किरदार निभा रहे थे जो राजनेताओं और कारोबारियों के बीच गठजोड़ का मुक़ाबला कर रहा है. हैमलेट का रूपांतरण करके, कश्मीर की पृष्ठभूमि में बनी हैदर में उन्होंने एक भूत का किरदार निभाया, जो मुख्य किरदार को अपने चचा के विश्वासघात से आगाह करता है. पिकू, हिंदी मीडियम, और अंग्रेज़ी मीडियम जैसी फ़िल्मों में उनके किरदार पर ग़ौर करें तो कह सकते हैं कि इस दौर में वे एक कॉमिक हीरो बनने की दिशा में भी बढ़ रहे थे. उनकी तन्हाई एक बार फिर साफ़ ज़ाहिर थी: उनके मज़ाक़िया किरदार विदूषकों की तरह उतने नहीं दिखते थे, जितने कि ऐसे लोगों की तरह जो सिर्फ़ इसलिए मसखरी बातें कह रहे हैं ताकि एक अटपटी-सी ख़ामोशी को भर सकें.

बॉलीवुड में अटपटी ख़ामोशियाँ तब एक क़ायदा बनने लगीं, जब भारत एक नए नेता के तहत हिंदू राष्ट्रवाद की चपेट में आने लगा था. 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद जब अधिक से अधिक फ़िल्में सेंसर होने लगीं, तब देश के सबसे बड़े अभिनेताओं और निर्देशकों ने हालात के साथ समझौता कर लिया था. जब हथियारबंद पुलिसकर्मियों की आक्रामक भीड़ ने विश्वविद्यालय कैंपसों पर हमले किए, जब मुसलमानों को उनकी नागरिकता से महरूम किया गया और सड़कों पर उन्हें पीट-पीट कर मार दिया जाने लगा, तब वे कुछ भी कहने से बचते रहे. इसकी जगह उन्होंने मोदी के साथ एक ग्रुप सेल्फ़ी में शामिल होना पसंद किया. उन्होंने प्रधानमंत्री को एक “संत” कहा, भले ही मुल्क में बेशुमार असहमत एक्टिविस्ट बिना किसी मुक़दमे के जेलों में डाले जा रहे थे, और यहाँ तक कि बिना मुक़दमों के ही जेल में उनकी मौत भी हो रही थी. इन लोगों ने तब भी मुँह नहीं खोला जब 2020 में एक युवा अभिनेता ने ख़ुदकुशी कर ली, और उसकी प्रेमिका को, जो ख़ुद एक अभिनेत्री है, पक्षपात से भरे टीवी न्यूज़ चैनल रोज़ ब रोज़ बदनाम करते रहे. वह अकेली औरत एक मीडिया ट्रायल की आग झेलती रही, जिसमें बेबुनियाद इलज़ामों और संकीर्ण विचारों का तेल डाला जा रहा था. उस पर अपने प्रेमी के पैसे का ग़बन करने का और कथित “काला जादू” करने का आरोप लगाया गया. आख़िरकार उसे गिरफ्तार किया गया, आरोप था कि उसने कथित रूप से गाँजा ख़रीदा था. यह ठीक उस समय हुआ जब उस गुज़रे हुए अभिनेता के गृह राज्य में अहम चुनाव महज़ कुछ हफ़्ते दूर थे.

मैंने अपने मुल्क में इस त्रासदी को महीनों तक चलते हुए देखा, जहाँ इसकी संभावना कम थी कि लोग मुझे पहचानने में कोई ग़लती करते. यह कहना शायद दुनिया की सबसे बेमानी बात है कि आपकी ग़ैरमौजूदगी में एक जगह बदल गई है. लेकिन मोदी की हुक्मरानी के इस ज़हरीले मिज़ाज से इन्कार नहीं किया जा सकता. अख़बारों में हर रोज़ ही आप पढ़ते हैं कि कोई न कोई गिरफ़्तार हुआ है, या उसको पीट दिया गया है, या उसे मार डाला गया है, क्योंकि उसने “हिंदू भावनाओं” को चोट पहुँचाई हैः नफ़रत के आधार पर किए गए अपराधों (हेट क्राइम्स) के पीड़ितों के साथ इस तरह पेश आया जाता है मानो ख़ुद वही किसी अपराध के भागीदार हों. दिल्ली और बंबई जैसे शहर अब पहचान में नहीं आते. पुरानी इमारतों और समंदर के सामने के शहर के विस्तार को अब औपनिवेशिक निशानियाँ बता कर ख़त्म किया जा रहा है. अगर आप दूर शहर के आसमान को देखें, आपको मेरे बचपन का टीवी टावर नहीं दिखाई देगा. आप जहाँ भी नज़र उठाएँ, आपको मोदी का खिझा देने वाला चेहरा शहर पर पसरा हुआ दिखाई देगा. इस नए भारत के मूल्य हैं - हिंसा, पितृसत्ता, विद्वेष, दूसरों से एक बेबुनियाद डर, पूंजीवाद और धार्मिक कट्टरपंथ का एक ज़हरीला मेल. ये ठीक वही मूल्य हैं जिन्हें 80 और 90 के दशकों की भक्ति और प्रतिशोध की कहानियों ने प्रचारित किया, वे फ़िल्में जिनमें कभी इरफ़ान के लिए कोई जगह नहीं थी. और अगर कुछ पुराने बॉक्स ऑफिस नायकों का प्रभाव कमज़ोर पड़ा है, तो आंशिक रूप से इसलिए कि मोदी ने उनकी शख़्सियत के जादुई प्रभाव को हड़प लिया है. बरसों पहले मैं बंबई में अभिनेताओं के घरों के बाहर इंतज़ार करती हुई भीड़ को देख कर हैरान होता, बेशुमार लोग जो अपने घरों से सैकड़ों मील चल कर अपने आदर्शों की एक झलक पाने के लिए वहाँ जमा हुआ करते थे. अब मुझे वही जोश उन हिंदुओं में दिखाई देता है जो क़समें खाते हैं कि वे हमेशा मोदी के लिए वोट करेंगे.

इरफ़ान के गुज़रने के बाद मुझे इस बात का अहसास हुआ कि उनकी आख़िरी दो फ़िल्में - डूब और अंग्रेज़ी मीडियम - पितृसत्तात्मक दक्षिण एशिया के बने-बनाए ढाँचों के ख़िलाफ़ जाती हैंः ये वे उत्पीड़नकारी सामाजिक रीति-रिवाज हैं, जो माता-पिता को इसका अधिकार देते हैं कि वे अपने बड़े हो चुके बच्चों के बारे में फ़ैसला करें कि वे किससे शादी कर सकते हैं और क्या खा सकते हैं. रूपहला पर्दा इन रीति-रिवाज़ों को मज़बूती ही देता है. (2000 के दशक की एक ब्लॉकबस्टर फ़िल्म की टैगलाइन को याद करके मेरा मन अभी भी ख़राब हो उठता है: “इट्स ऑल अबाउट लविंग योर पेरंट्स.”) दोनों फ़िल्मों में इरफ़ान ने ऐसे पिताओं का किरदार निभाया जिनमें कमियाँ हैं, जो इस बात के लिए चिंतित हैं कि वे अपने बच्चों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी शायद पूरी नहीं कर पा रहे हैं, कि कहीं उन्होंने अपने फ़ैसलों से अपने बच्चों को नुक़सान न पहुँचा दिया हो. यह देखना एक ताज़गी भरा अनुभव था. चीज़ें बदली हुई थीं, हम नायकों को अपनी अगली पीढ़ी के लिए मददगार बनने की कोशिश करते हुए देखते हैं, जो एक अधिक हमदर्द अभिभावक बनने की कोशिशें कर रहे हैं. डूब में एक कमाल का सीन है, जहाँ मुश्किलों में डूबा हुआ एक फ़िल्मकार जावेद महसूस करता है कि उसके किशोर बेटे को स्कूल में बच्चों द्वारा परेशान किया जा रहा है, क्योंकि उसके माँ-बाप में तलाक़ हो गया है. वह अपने बेटे से कहता है कि वह जावेद को एक बुरा पिता बता सकता है, लेकिन बेटे को हक़ीक़त बेहतर मालूम हैः वह जानता है कि उसके माँ-बाप एक बदहाल रिश्ते में बंधे हुए थे.

अंग्रेज़ी मीडियम उतनी बारीक नहीं है, लेकिन उसमें पीढ़ियों के बीच का रिश्ता हमदर्दी भरा दिखता है. इरफ़ान का किरदार एक अकेले पिता का है, जिसकी बेटी एक सुस्त रफ़्तार भारतीय क़स्बे में इरफ़ान के अपने बचपन को ही जीती हुई दिखाई देती है. उसमें भी दुनिया को देखने के सपने हैं, और उसके सीधे-सादे पिता और उनके दोस्त लंदन के एक कॉलेज में उसका दाख़िला कराने के लिए संघर्ष करते हैं. वे मिन्नतें करते हैं, उधार लेते हैं, चोरी करते हैं, जब तक कि बेटी को यह अहसास नहीं हो जाता कि उसे विदेश की एक डिग्री हासिल करने के लिए अपनी पिता की सारी बचत ख़र्च करना ज़रूरी नहीं है. जब वह उन्हें बताती है कि वह भारत में ही पढ़ाई कर लेगी, तब ऐसे मौक़े पर आप सोचेंगे कि कोई भी पिता अपने बच्चे को गले लगा लेगा. लेकिन नहीं, इरफ़ान बस मुस्कुराते हुए अपना चेहरा टैक्सी के बाहर निकाल कर देखने लगते हैं, जिसमें तब वे सफ़र कर रहे होते हैं. भावनाओं को अपने भीतर समेटे हुए, वे एक पल को ख़ुश दिखाई देते हैं.

Abhrajyoti Chakraborty has written for The Guardian, The New Yorker and The New York Times Magazine. He was a Provost's fellow at the Iowa Writers' Workshop.